अनुच्छेद 370 की आड़ में जम्मू कश्मीर राज्य के लोगों से किये जा रहे इस अन्याय पर एक आध को छोड़ कर कमोवेश सभी राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थाएं चुप्पी धारण किये हुये हैं। दलितों, पिछड़े वर्गों और जनजाति समाज के लोगों के अधिकारों के लिये जो राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थाएं सारे देश में हल्ला मचाती रहतीं हैं, वे जम्मू कश्मीर में घुसते ही इन वर्गों के साथ हो रहे अन्याय पर चुप्पी साध लेती हैं।
1950 से लेकर अब तक देश में एक ही बहस चल रही है कि अनुच्छेद 370 को हटाया जाना चाहिये या नहीं? इसको हटाने के लिये 1950-53 तक राज्य के एक राजनैतिक दल प्रजा परिषद ने आन्दोलन भी चलाया था जिसमें 15 लोग पुलिस की गोलियों से मारे गये थे।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 पर चर्चा करने से पहले उस की प्रकृति को समझना जरुरी है। संघीय संविधान में विभिन्न विषयों की तीन सूचियां हैं।
1. राज्य सूची
2. संघीय या केन्द्रीय सूची
3. समवर्ती सूची
राज्य सूची में जो विषय सूचीबद्ध किये गये हैं उन पर राज्य की विधान सभा कानून बना सकती है।
केन्द्रीय सूची में जो विषय दिये गये हैं, उन पर संसद कानून बना सकती है और समवर्ती सूची में जो विषय हैं उन पर संसद या राज्य विधान सभा कानून बना सकती है लेकिन यदि दोनों में टकराव होता है तो संसद का बनाया कानून मान्य होगा।
जहां तक जम्मू कश्मीर का ताल्लुक है, राज्य सूची को लेकर तो स्थिति अन्य राज्यों के समान ही है, लेकिन संघीय या केन्द्रीय सूची और समवर्ती सूची को लेकर स्थिति थोड़ा भिन्न है।
राष्ट्रपति राज्य सरकार की सलाह पर केन्द्रीय सूची और समवर्ती सूची में से ऐसे विषयों की सूची तैयार करेगा, जो विषय, अधिमिलन प्रपत्र में लिखे गये विषयों से ताल्लुक रखते हों। ध्यान रहे जम्मू कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने देश की अन्य रियासतों के शासकों की ही तरह अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर सांविधानिक एकीकरण की प्रक्रिया में शामिल होने की घोषणा की थी। अधिमिलन प्रपत्र में रक्षा, विदेश सम्बंध, संचार और इन से जुड़े विषय शामिल थे। मोटे तौर पर केन्द्रीय सूची और समवर्ती सूची में दिये गये विषयों में से, इन तीन विषयों से सम्बंधित विषयों की एक अलग सूची तैयार की जायेगी और राष्ट्रपति उसे अधिसूचित करेंगे। संसद इन अधिसूचित विषयों पर ही कानून बना सकती है। यह सूची तैयार करने और उसे अधिसूचित करने के लिये राष्ट्रपति के लिये जरुरी है कि वे राज्य सरकार से सलाह अवश्य कर लें। यह सलाह स्वीकार करने या न करने की बंदिश राष्ट्रपति पर नहीं है।
इन दोनों सूचियों में से उपरोक्त विधि से चयनित विषयों को अधिसूचित करने के बाद जो अन्य विषय बचते हैं, उनमें से जिन विषयों को राष्ट्रपति चाहें अधिसूचित कर सकते हैं और इन अधिसूचित विषयों पर भी संसद कानून बना सकती है, बस शर्त केवल इतनी ही है कि इन विषयों को अधिसूचित करते समय राज्य सरकार की केवल सलाह लेने भर से काम नहीं बनेगा बल्कि उस के लिये राज्य सरकार की सहमति अनिवार्य है।
अब बात रही संघीय संविधान की। संघीय संविधान के दो अनुच्छेद, 1और 370 तो जम्मू कश्मीर में स्वत ही लागू हैं लेकिन संविधान के शेष अनुच्छेद व अनुसूचियां राज्य में लागू नहीं हैं। संघीय संविधान के शेष प्रावधानों को राष्ट्रपति अपने आदेश द्वारा या तो उनके मूल रुप में ही या फिर अपवादों व उपान्तरणों सहित राज्य में लागू कर सकते हैं। लेकिन इसमें एक पेंच है। राष्ट्रपति संघीय संविधान के उन्हीं प्रावधानों को अपवादों व उपान्तरणों सहित राज्य में लागू कर सकते हैं जो अधिमिलन प्रपत्र में चिन्हित तीन विषयों रक्षा, संचार व विदेशी मामलों से सम्बंधित हो। लेकिन इसके लिये भी उन्हें एक बार तो राज्य सरकार से सलाह करनी ही पड़ेगी।
फिलहाल अनुच्छेद 370 को हटाने की बात तो कोई कर ही नहीं रहा। देश के बुद्धिजीवी वर्ग, विधि विशारदों और संविधान विशेषज्ञों में इस बात को लेकर बहस छिड़ी है कि अनुच्छेद 370 से जम्मू कश्मीर के आम लोगों को कोई लाभ भी है या उलटा इससे उनको नुक़सान हो रहा है...
अधिमिलन प्रपत्र में दिये गये तीन विषयों से सम्बंधित संघीय संविधान के प्रावधानों के अतिरिक्त बचे अन्य अनुच्छेदों को भी राष्ट्रपति एक आदेश द्वारा राज्य में लागू कर सकते हैं। लेकिन यह आदेश जारी करने से पहले राष्ट्रपति के लिये यह अनिवार्य है कि वे राज्य सरकार से इस मुद्दे पर सहमति प्राप्त करें।
इस पूरी कथा का तात्पर्य यह है कि संघीय संविधान जम्मू कश्मीर में स्वत प्रभावी नहीं होता। उसके वही प्रावधान राज्य में लागू होंगे जिनकी स्वीकृति राज्य देगा। इतना ही नहीं यदि राज्य चाहे तो वह जम्मू कश्मीर के लिये संघीय संविधान में भी संशोधन और ड्डस्रस्रद्बह्लद्बशठ्ठ कर सकता है और उसने ऐसा अनेक बार किया भी है। लेकिन तब प्रश्न पैदा होता है कि यदि संघीय संविधान राज्य में लागू ही नहीं होता तो आखिर प्रदेश का प्रशासन कैसे चलता है? इसका उत्तर मजेदार है। जम्मू कश्मीर राज्य का अपना संविधान है। यही संक्षेप में अनुच्छेद 370 है।
1950 से लेकर अब तक देश में एक ही बहस चल रही है कि अनुच्छेद 370 को हटाया जाना चाहिये या नहीं? इसको हटाने के लिये 1950-53 तक राज्य के एक राजनैतिक दल प्रजा परिषद ने आन्दोलन भी चलाया था जिसमें 15 लोग पुलिस की गोलियों से मारे गये थे।
लेकिन इस विषय पर बात करने से पहले यह जान लेना जरुरी है कि रियासत के शासक द्वारा अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने का स्वाभाविक परिणाम क्या था? क्योंकि आम तौर पर बार बार यह दोहराया जाता है कि जम्मू कश्मीर के भारत के साथ सम्बंध अनुच्छेद 370 द्वारा संचालित होते हैं। जम्मू कश्मीर और अन्य रियासतों के बारे में भी यह कहा जाता है कि अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने के कारण ही वे भारत का हिस्सा बनीं। कई बार तो यह भी कहा जाता है कि अनुच्छेद 370 समाप्त हो जाने का अर्थ राज्य का भारत से अलग हो जाना होगा। अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर को लेकर की गई यह व्याख्या ही गलत है। रियासतें अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर से पहले भी और बाद में भी भौगोलिक लिहाज से भारत का ही भू भाग थीं। अन्तर केवल इतना ही था कि रियासतों में सांविधानिक प्रशासन व्यवस्था अलग थी और शेष भारत में अलग थी। रियासतों के शासकों द्वारा अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने का परिणाम केवल इतना ही था कि दोनों सांविधानिक प्रशासन व्यवस्थाओं के स्थान पर निर्मित हो रहे नये संविधान को स्वीकारने और उसके निर्माण में भागीदारी सुनिश्चित की गई।
एक और तथ्य अनुच्छेद 370 के बारे में चर्चा करने से पहले जानना अनिवार्य है। देश भर में सैकड़ों राजाओं ने अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर करके अपनी रियासतों के,देश की नई सांविधानिक व्यवस्था से एकीकृत होने की प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, लेकिन जम्मू कश्मीर को लेकर ही संघीय संविधान में अलग से अनुच्छेद 370 डालने की जरुरत क्यों पड़ी?
घाटी के गुज्जर-बकरवाल, बल्ती, शिया और जनजाति समाज तो इस मामले में बहुत ज्यादा मुखर है। ये सभी पूछ रहे हैं साठ साल में इस अनुच्छेद से उन्हें क्या लाभ मिला?
संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश
जिन दिनों विभिन्न रियासतों के शासकों द्वारा अधिमिलन प्रपत्र पर हस्ताक्षर कर देने के बाद, रियासतों के संविधान और नये बन रहे संघीय संविधान के एकीकरण को लेकर विभिन्न स्तरों पर कार्य हो रहा था, उन दिनों उन सभी प्रक्रियाओं को जम्मू कश्मीर में व्यावहारिक स्तर पर लागू करना संभव नहीं था क्योंकि रियासत पर पड़ोसी देश पाकिस्तान का परोक्ष आक्रमण हो चुका था और वहां लड़ाई चल रही थी। रियासत के कुछ हिस्सों पर पाकिस्तान ने कब्जा भी कर लिया था। बाकी रियासतों के शासकों एवं जन प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के बाद सांविधानिक एकीकरण की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी, लेकिन जम्मू कश्मीर में चल रहे युद्ध के कारण यह संभव नहीं था। उधर संघीय संविधान रचना का काम पूरा हो चुका था। संविधान के अनुच्छेद एक में नये बन रहे भारत गणतंत्र के राज्यों की सूची दी गई थी। उस सूची में तो जम्मू कश्मीर का नाम था। लेकिन इस अनुच्छेद का सांविधानिक एकीकरण की प्रक्रिया से कोई ताल्लुक नहीं था। इसका अर्थ तो केवल यह था कि यह राज्य भी अन्य किसी भी राज्य की तरह भारत का अंग है। लेकिन असली प्रश्न था कि जम्मू कश्मीर राज्य की सांविधानिक शासन व्यवस्था का संघीय सांविधानिक व्यवस्था से समावेश कैसे किया जाये? क्योंकि युद्ध के कारण इस राज्य के शासक और जन प्रतिनिधियों से सांविधानिक एकीकरण की प्रक्रिया की पद्धति को लेकर समुचित बातचीत नहीं हो पाई थी। रियासत में जम्मू कश्मीर संविधान अधिनियम 1939 के अन्तर्गत शासन व्यवस्था चल रही थी। इस समस्या के समाधान के लिये संविधान के प्रस्तावित प्रारूप में एक अस्थाई अनुच्छेद 306 ए जोड़ा गया। यही अनुच्छेद बाद में अनुच्छेद 370 बना। इस अनुच्छेद में वह प्रक्रिया निर्धारित की गई थी जिसके अनुसार संघीय व प्रादेशिक शासन व्यवस्था का सांविधानिक एकीकरण होना था।
इस पृष्ठभूमि के बाद यह बहस चलाई जा सकती है कि अनुच्छेद 370 को हटाया जाना चाहिये या नहीं? हटाने की सांविधानिक प्रक्रिया क्या हो सकती है, यह बाद का विषय है। फिलहाल अनुच्छेद 370 को हटाने की बात तो कोई कर ही नहीं रहा। देश के बुद्धिजीवी वर्ग, विधि विशारदों और संविधान विशेषज्ञों में इस बात को लेकर बहस छिड़ी है कि अनुच्छेद 370 से जम्मू कश्मीर के आम लोगों को कोई लाभ भी है या उलटा इससे उनको नुक़सान हो रहा है और उनको अनेक सांविधानिक अधिकारों से बंचित किया जा रहा है? भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा है कि वह संघीय संविधान के अनुच्छेद 370 के मामले में सभी से बातचीत करेगी और पार्टी इस अनुच्छेद को समाप्त करने की अपनी बचनबद्धता दोहराती है। पार्टी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह ने यह भी कहा कि इस बात पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये कि इस अनुच्छेद से राज्य के लोगों को लाभ हो रहा है या हानि। हो सकता है कि इस अनुच्छेद से लाभ केवल अब्दुल्ला परिवार और उनके गिने चुने व्यवसायिक मित्रों को हो रहा हो और वे उसको बरकरार रखने के लिये जम्मू कश्मीर के लोगों की आड़ ले रहे हों। वैसे भी जहां तक राज्य की आम जनता का ताल्लुक है, वह तो इस अनुच्छेद के कारण पैदा हुये भेदभाव की चक्की में बुरी तरह पिस रही है। जो मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को मिले हुये हैं, उनसे राज्य की जनता को महरुम रखा जा रहा है। वे सभी अधिकार और सुविधाएं, जो अन्य सभी को, विशेष कर दलित और पिछड़े वर्गों को मिलती हैं, जम्मू कश्मीर में नहीं मिल रहीं। ऐसा नहीं कि फारूक और उमर, दोनों बाप बेटा अनुच्छेद 370 के कारण राज्य की आम जनता को हो रहे नुकसान को जानते न हों। लेकिन इसके बावजूद वे अडे हुये हैं कि इसकी रक्षा के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हैं।
राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो और भी दो कदम आगे निकल गये। उन का कहना था कि लोकसभा में कोई पार्टी चाहे कितनी भी सीटें क्यों न जीत ले, लेकिन वह अनुच्छेद 370 को हाथ नहीं लगा सकती। यदि कोई सरकार अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के लिये सांविधानिक विधि का प्रयोग भी करती है तो उन्हें (अब्दुल्ला परिवार को) इस बात पर नये सिरे से विचार करना होगा कि जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा रहे या न रहे। उधर उनके पिता श्री दहाड़ रहे हैं कि जब तक उनके शरीर में ख़ून का अन्तिम कतरा है, तब तक वह अनुच्छेद 370 को समाप्त नहीं होने दूंगा। उन्होंने धमकी तक दी कि जब तक नेशनल कान्फ्रेंस का एक भी कार्यकर्ता जिन्दा है तब तक अनुच्छेद 370 की ओर कोई आंख उठा कर नहीं देख सकता। वैसे तो फारूक अब्दुल्ला केन्द्रीय सरकार में मंत्री रहे हैं, लेकिन जैसे ही वे बनिहाल सुरंग पार कर घाटी में प्रवेश करते हैं तो उन की भाषा धमकियों की हो जाती है और धमकियां भी वे चीन और पाकिस्तान को देने की बजाय, जो राज्य के दो हिस्सों गिलगित और बल्तीस्तान के लोगों, खास कर शिया समाज, का दमन कर रहे है, को न देकर भारत को ही देने लगते हैं। उनका मानना है कि नरेन्द्र मोदी का समर्थन करने का अर्थ होगा, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का समर्थन करना। इसीलिये उमर अब्दुल्ला पूरी घाटी में लोगों को ललकारते घूम रहे हैं कि लोग मोदी का समर्थन न करें। अपनी बात लोगों में रखने का अब्दुल्ला परिवार को लोकतांत्रिक अधिकार है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। अपनी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस की नीतियां जनता को बताने और उस आधार पर समर्थन मांगना भी उनका लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन चुनाव परिणामों के आधार पर यह कहना कि जम्मू कश्मीर देश का हिस्सा नहीं रहेगा, देशद्रोह ही नहीं बल्कि देश के शत्रुओं का परोक्ष समर्थन करना ही कहा जायेगा।